बिहार चुनाव परिणामों के मायने
प्रशांत पोल
बिहार के चुनाव सर्वथा अप्रत्याशित थे. भाजपा के लिए तो थे ही. किन्तु महागठबंधन के लिए भी थे. लालू यादव और कांग्रेस के लिए यह एक सुखद आश्चर्य था. विगत १५ वर्षों से, सत्ता के लिए लालायित इन पार्टीयों कों तो मानो जनता ने छप्पर फाड के सीटें दी…!
पहला महत्वपूर्ण प्रश्न – क्या राजनितिक दल, मीडिया और राजनितिक विश्लेषक जनता की नब्ज पहचानना भूल गए हैं..? अगर महागठबंधन की ऐसी लहर थी तो सारे सर्वे उसे अधिकतम १३५ सीटें ही क्यूँ दे रहे थे..?
इस चुनाव को भाजपा ने अत्यंत प्रतिष्ठा का चुनाव बना लिया था. ऐसा क्यूँ..? नहीं पता. लेकिन दुसरे चरण के बाद प्रधानमंत्री मोदी जी के सभाओं की संख्या बढाई गई. यह चुनाव मोदी बनाम नितीश ऐसा लड़ा गया, जो टाला जा सकता था.
इस चुनाव में भाजपा के होर्डिंग्स और पोस्टर्स पर चेहरे थे, मोदी जी और अमित शहा के. तो महागठबंधन के होर्डिंग्स / पोस्टर्स पर नितीश कुमार, लालू यादव और कांग्रेस के बिहारी नेताओं के फोटो होते थे. पहले मोदी जी के रणनीतिकार, जो अब नितीश कुमार के सलाहकार हैं, प्रशांत किशोर ने इस अवसर को पकड लिया और नारा दिया – ‘बिहारी बनाम बाहरी’. भाजपा को बाहरी लोगों की पार्टी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था और बिहार का स्वाभिमान महागठबंधन के साथ जुड़ रहा था. यह अस्त्र परिणामकारक रहा. नॉन-कमिटेड / फ्लोटिंग वोटर्स पर इसका जबरदस्त असर हुआ.
बिहार जातिव्यवस्था से अत्यधिक प्रभावित राज्य हैं. जब जब भी जाती / बिरादरी से बिहार को बाहर निकाला जाता हैं, तब तब भाजपा या राष्ट्रवादी सोच के पक्ष में परिणाम जाता हैं. इस चुनाव को भाजपा, जातिगत राजनीति से ऊपर उठाने में असफल रही. उल्टे टिकिटों का बटवारा भी जातिगत आधार पर ही हुआऔर जीतनराम मांझी को लेकर महा-दलित कार्ड खेलने का प्रयास हुआ. भाजपा (और किसी अंशो तक कांग्रेस भी) की पहचान किसी एक जाती विशेष को लेकर कभी नहीं रही हैं. इसलिए भाजपा के इस चुनाव में अपनी जमीन ही नहीं मिल पायी. अगड़े (ब्राह्मण, भूमिहार आदि..) भाजपा के साथ एकजुट हो गए, जो संख्या में कम हैं, तो पिछड़े और मुसलमान महागठबंधन के साथ चले गए..! अर्थात विचारों, नीतियों, विकास की अवधारणाओं पर चुनाव लड़ा ही नहीं गया..!
भाजपा ने अनेक स्थानों पर अपने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा कर के अन्य दलों से भाजपा में आये विधायकों को / लोगों को टिकिट बाटे (और वो सब के सब चुनाव हार गए..!), तो भाजपा के सहयोगी दलों ने (पासवान की लोजपा आदि पार्टियों ने) विधान सभा की टिकिटे बेचीं ! ये सब होते हुए भाजपा गठबंधन के पक्ष में लहर बनाना कहा संभव था..?
और अंत में – क्या सरसंघचालक जी की आरक्षण पर की गई टिप्पणी का असर चुनाव पर पड़ा..? उत्तर हैं – नहीं. लेकिन महागठबंधन के नेताओं ने और मीडिया ने उसे भुनाने का पूरा प्रयास किया. सरसंघचालक जी की टिप्पणी जिस विषय पर थी ही नहीं, उसे लेकर भाजपा संरक्षात्मक भूमिका में आ खडी हुई. इस पूरे चुनाव में भाजपा सारे समय डिफेन्स पर रही. इसके पहले के चुनावों में भाजपा अजेंडा सेट करती थी और बाकी दल बस प्रतिक्रिया देते रह जाते थे. बिहार के इस चुनाव में एजेंडा महागठबंधन ने तय किया और भाजपा अपने आप को बचाते नजर आयी..!
मैं मानता हूँ की जनता होशियार होती हैं और वह समझदारी से वोटिंग करती हैं. जब सारा बिहार बुलंद स्वर में महागठबंधन को वोटिंग करता हैं, तो वह गलत नहीं हो सकता. लालू यादव के जंगलराज की पुनर्स्थापना पर यह जनमत नहीं हैं. भाजपा की विफलता पर दिया गया यह जनादेश हैं. गलती हुई होगी तो भाजपा की प्रस्तुति में, कार्यपध्दती में या गलत लोगों को चुनने में..!
बिहार के चुनाव परिणाम, कमोबेश आज तो यही कह रहे हैं.
- प्रशांत पोल